Home / मुद्दा

दिल्ली चुनाव : फायदे के दौर में ज्यादा फायदे की चाहत ले डूबी आप की नैय्या

दिल्ली विधानसभा के नतीजे न चौंकाने वाले थे और न ही अप्रत्याशित

Article By :
-ऋतुपर्ण दवे, वरिष्ठ पत्रकार

भाजपा ने भी मतदाताओं को निजी तौर पर लाभ के पिटारों और पुरानी सौगातों में वृध्दि का जो दांव खेला उसी का असर सामने है। फायदे के दौर में ज्यादा फायदा कौन नहीं चाहेगा?भाजपा ने भी फायदों की झड़ी पर दांव लगाया तो क्या बुरा किया?

दिल्ली के नतीजों को महागठबंधन की रार, तकरार या हार कहें या फिर भाजपा का आत्मविश्वास, लेकिन सच यही है कि जीत मतदाताओं की हुई है। यकीनन दिल्ली के मतदाताओं के दोनों हाथ में लड्डू थे। शायद, इसी वजह से दिल्ली में मतदाताओं ने काफी सोच-विचार कर भाजपा को चुना। हो सकता है कि इस बार केजरीवाल और उनकी टीम अपने वायदों पर खरे नहीं उतरे या आरोपों के कुचक्र में ऐसी घिरते चले गए कि जनमानस को उनकी कथनी और करनी में तो अंतर समझ आने लगा। वहीं पुरानी घोषणाओं और भावनाओं का खेला हुआ। आम आदमी पार्टी को इस बार उसके नेताओं के पुराने भावुक भाषणों ने करारी चोट दी। जिसमें नीली वैगन आर और मुख्यमंत्री के आवास को लेकर जुमलों जैसी बातें थी। भाजपा ने भी मतदाताओं को निजी तौर पर लाभ के पिटारों और पुरानी सौगातों में वृध्दि का जो दांव खेला उसी का असर सामने है। फायदे के दौर में ज्यादा फायदा कौन नहीं चाहेगा?भाजपा ने भी फायदों की झड़ी पर दांव लगाया तो क्या बुरा किया? इधर केजरीवाल भी अपनों से ही उलझते चले गए और गठबंधन भी बिखरता गया। 
आम आदमी पार्टी को शीश महल, शराब घोटाला जैसे आरोपों ने ऐसा धराशायी किया कि आप की'झाड़ू ' ने अपनों को साफ कर नाउम्मीद कर दिया। हालांकि भाजपा को अपना सूखा दूर करने में 27 साल लग गए। लेकिन यह सच है कि लोकसभा चुनावों के बाद दिल्ली के महज 70 सीटों के चुनाव पर देश-दुनिया की निगाहें थी। दिल्ली के चुनाव इसलिए भी बेहद खास थे कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद वहां पर सरकार न बना पाना उनकी सबसे बड़ी कसक थी। यही वजह थी कि मोदी ने भी इस बार न केवल अपना दांव चला बल्कि अपने भाषणों से भी काफी कुछ संदेश देने की कोशिश की। आखिर दिल्ली में भी मोदी मैजिक पहली ही बार ही सही, चल गया।
हालांकि कहा जरूर जा रहा था कि संघर्ष त्रिकोणीय होगा लेकिन नतीजे आमने-सामने के ही दिखे। कांग्रेस को जरूर इस बात पर संतोष करना होगा कि उसके वोट प्रतिशत में थोड़ा इजाफा हुआ है। लेकिन यह नाकाफी है। हां यदि इण्डिया गठबन्धन यहां भी एकजुटता से लड़ता तो संभव है कि नतीजे कुछ बदले भी आ सकते थे। लेकिन यह महज कयास हैं। कुल मिलाकर इसे घोषणाओं में कौन कितना आगे रहा उसी की जीत हुई कहा जा सकता है।70 सीटों वाली दिल्ली विधानसभा में भाजपा 48 सीटों के बहुमत सत्ता में आई। वहीं आम आदमी पार्टी 22 सीटों पर सिमट गई। मतों के प्रतिशत के लिहाज जहां भाजपा को 45.56 तो आम आदमी पार्टी को 43.57 प्रतिशत मत मिले। अंतर भले ही कम रहा लेकिन अंकगणित के आंकड़ों ने आप को चित्त कर दिया। कांग्रेस को जरूर 2020 के मुकाबले ज्यादा मत मिले जो 4.63 से बढ़कर 6.34 हो गए। निश्चित रूप से हरेक सीट के विश्लेषण के बाद समझ आएगा कि कांग्रेस आप के लिए कितनी वोट कटवा रही।
अब भाजपा के लिए अभी तो यह जश्न का दौर है। लेकिन वायदों पर भी खरा उतरना होगा। निश्चित रूप से मुफ्त की रेवड़ी की बहार और वायदों में बरकरार रहने वाली पार्टियों का ही वक्त आता दिख रहा है। शायद दिल्ली में भाजपा की जीत और आम आदमी पार्टी की हार के बाद सभी की निगाहें अब बिहार पर हैं। वहां के मतदाताओं के हाथ अभी दिल्ली जैसा लाभ नहीं है। वहां सत्ताधारी गठबंधन के अंदर निश्चित रूप से इस जीत के बाद मंथन का दौर चल रहा होगा कि मतदाताओं को अपने पक्ष में बनाए रखने की लिए और कितनी घोषणाएं कर तुरंत उन्हें अमल में लाया जा सकता है।
आम आदमी पार्टी के क्षत्रपों की हार से पूरे देश में एक बड़ा संदेश जरूर गया है। आने वाला दौर और राज्यों के चुनावों के ट्रेन्ड काफी बदलने वाले हैं। दिल्ली के नतीजों के बाद अब जिन-जिन राज्यों में चुनाव होने हैं वहां पर विकास के अलावा मुफ्त की रेवड़ी बांटने या जीतने के बाद देने के वायदों को देखना होगा।
भाजपा की जीत या आप की हार को राजनीतिक दृष्टि से तो देखा ही जाएगा लेकिन इसका विकास की योजनाओं पर भी दूरगामी असर होगा। इसके अलावा गठबन्धन की राजनीति के लिए भी बड़ा संदेश छुपा है। बन्द मुट्ठी लाख की खुल गई तो खाक की। कांग्रेस बेहतर न कर पाने के बाद भले ही कहे कि हमें आम आदमी पार्टी ने हरियाणा में धोखा दिया तो हमने दिल्ली में उसे उसकी हैसियत बता दी। वास्तविक हैसियत तो मतदाताओं ने दिखा दी है।लगता नहीं कि भविष्य में गठबन्धन धर्म में कांग्रेस ने भी खुद अपने लिए चुनौतियां नहीं बढ़ा लीं?
कहते हैं वक्त कभी थमता नहीं है। लेकिन कांग्रेस की हालत और जनता में विश्वास को लेकर अब यह चिंतन और मंथन का भी समय है। कांग्रेस को अपने वजूद के लिए नए सिरे से छोटे-बड़े से समझौते पर सोचना होगा। वहीं आम आदमी पार्टी को भी इस बात को लेकर जूझना होगा कि पंजाब के वायदों को पूरा न कर पाने का दिल्ली में कितना खामियाजा उठाना पड़ा? लेकिन एक बार फिर विपक्षी एकता और महागठबंधन की ताकत को लेकर फिर चिंतन-मंथन का दौर शुरू होगा। शायद विपक्ष सीख ले?इसके लिए बिहार के चुनाव का इंतजार करना होगा।
सच है कि भाजपा को आत्मविश्वास और मजबूत संगठनात्मक ढ़ांचे के साथ अनुशासित होकर चुनाव लड़ने से भी बहुत फायदा हुआ। वहीं जिस तरह से प्रचंड जनादेश से सरकार में आने के बाद ही आम आदमी पार्टी से जुड़े महत्वपूर्ण तुरुप और दूसरे दिग्गजों को मजबूरन कहें या जानबूझकर अलग किया गया या होने को मजबूर होना पड़ा यह हार भी कहीं न कहीं उसकी कीमत है। अब आप के सामने बची-खुची एकजुटता बनाए रखनाभी बड़ीबल्कि बहुत चुनौती होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि केजरीवाल के लिए सबसे बड़ी मुश्किल अपनी पार्टी को दोबारा मजबूत कर पाना और पंजाब की सरकार को जनता की उम्मीदों पर खरा उतारना होगा। यह तय है कि केजरीवाल के लिए आने वाले दिन और भी मुश्किलों से भरे होंगे। 
भाजपा के लिए दिल्ली की बाधा तो दूर हुई। अब देखना है कि डबल इंजन की ताकत क्या करिश्मा कर दिखाती है। बहरहाल अभी तो आप और कांग्रेस की हालत को देखकर यही कहना ठीक होगा कि ये पब्लिक है सब जानती है। हाँ, दिल्ली के नतीजे न चौंकाने वाले थे और न ही अप्रत्याशित। गर्व से कह सकते हैं लोकतंत्र जिंदाबाद।

You can share this post!

महामंडलेश्वर की पदवी छीनने के बाद धीरेंद्र शास्त्री पर भड़कीं ममता कुलकर्णी, कहा-उनकी उम्र के बराबर तपस्या की है

लाशें बिछ रही हैं और आप ब्रांडिंग कर सिर्फ संगम में डुबकी लगाने वालों के आंकड़े गिन रहे, आखिर इन मौतों का जिम्मेदार कौन?

Leave Comments