Article By :
डॉ. जीवन एस. रजक, राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी एवं साहित्यकार
वास्तव में गीता एक सार्वभौम धर्म ग्रंथ है, इसमें मानव के जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या का सर्वश्रेष्ठ समाधान विद्यमान है। केवल श्रीमद्भगवद्गीता को सही दृष्टिकोण से पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।
श्रीमद्भगवद्गीता धर्म, कर्म, नीति और दर्शन की दृष्टि से भारत का ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। यह सत्य है कि गीता सनातन हिन्दूधर्म का सबसे पवित्र ग्रंथ है, किन्तु गीता का संदेश सार्वभौमिक है। इसके उपदेश किसी सम्प्रदाय विशेष के लिए नहीं हैं, बल्कि संपूर्ण मानवजाति के लिए कल्याणकारी है।
वास्तव में गीता हिन्दू धर्म का ही नहीं मानव धर्म का ग्रंथ है। मानव धर्म, मानव के आचरण पर नियंत्रण रखता है, साथ ही उसका नियमन और परिचालन भी करता है। गीता में मानव जीवन से संबंधित जटिल से जटिल समस्याओं का विवेचन और शाश्वत समाधान प्रस्तुत किया गया है। इसमें ऐसी समस्याओं का प्रस्तुतिकरण किया गया है, जिनका संबंध धर्म, व्यक्ति, जाति या देशकाल से नहीं है। अतः गीता का महत्व सार्वभौमिक है। मनुष्य के जीवन में जितना महत्व समस्याओं का नहीं है, उससे अधिक महत्व समस्याओं के निराकरण की विधियों का है। एक नैतिक ग्रंथ होने के नाते गीता इस अर्थ में अत्यंत महत्वपूर्ण मार्गदर्शन करती है और मानव आचरण से संबंधित समस्याओं के निराकरण और न्यायपूर्ण जीवन को प्रेरणा देती है। धर्म, दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता आदि मानव जीवन का मूल आधार और भगवद्गीता इन सब का कोष है। इसलिए संपूर्ण मानव जाति के लिए गीता का संबंध जीवन, आचार, धर्म, अध्यात्म और दर्शन से है।
गीता आचरण में कर्त्तव्य अकर्त्तव्य की समस्या का निदान खोजती है। कभी-कभी जीवन में ऐसी विकट परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाती हैं, जिनमें यह समझ नहीं आता कि क्या करें और क्या न करें? ऐसी ही विकट स्थितियों में श्रीमद्भगवत्गीता मानव जाति का मार्गदर्शन करती है। कुरुक्षेत्र में अर्जुनने जब देखा कि उसे अपने ही स्वजनों से युद्ध करना है, तो युद्ध के भयावह परिणामों के बारे में सोचकर उसका हृदय निराशा, दुःख, मोह और संताप से व्याकुल हो गया। ऐसी स्थिति में अर्जुन ने कहा कि वह भिक्षा मांग कर जीवन यापन कर लेगा किन्तु युद्ध करके अपनों का वध नहीं करेगा। तब किंकर्तव्यविमूढ़ता की अवस्था को प्राप्त अर्जुन का मार्गदर्शन भगवान श्रीकृष्ण करते हैं। अर्जुन और श्रीकृष्ण का संवाद ही गीता का प्रतिपाद्य विषय है। इस महत्वपूर्ण संवाद में गीता व्यक्तिगत् और सामाजिक नैतिकता के मूल सूत्रों तथा दार्शनिक मन्तव्यों की विवेचना करती है।
भारतीय धर्म शास्त्रों में गीता का महत्व सर्वोपरि है। इसमें सभी धर्म शास्त्रों का समाहार है। इसलिए गीता को 'सर्वशास्त्रमयी' कहा गया है। गीता में वेदों तथा उपनिषदों में वर्णित दार्शनिक एवं नैतिक सिद्धांत का मूल तत्व समाहित है। गीता एक समन्वयकारी धर्मशास्त्र है, इसमें सगुण-निर्गुण, आदर्श-यथार्थ, संन्यास-भोग, ज्ञान-भक्ति-कर्म, त्याग आदि का पूर्ण समन्वय स्थापित किया गया है। वास्तव में गीता ने व्यक्ति और समाज का पूर्ण समन्वय कर मानवजाति के लिए उच्च नैतिक मूल्य स्थापित किए हैं।
संभवतः गीता विश्व का एक मात्र धर्मग्रंथ है, जिसमें जीवन के परमलक्ष्य 'मोक्ष' की प्राप्ति के लिए 'कर्म' के मार्ग को सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। गीता कहती है कि अपने जीवन में कोई भी जीव एक क्षण भी बिना कर्म किए नहीं रह सकता है, उसे प्रत्येक क्षण कुछ न कुछ कर्म करना ही होता है। अर्थात् यह संसार कर्म प्रधान है और कर्मों से ही मोक्ष का मार्ग सुलभ है।
गीता का 'निष्काम कर्म योग' संपूर्ण मानवजाति के आदर्श है। निष्काम कर्म अर्थात् मनुष्य का अधिकार कर्म करने पर है, फल की प्राप्ति पर उसका अधिकार नहीं है। इसलिए मनुष्य को कर्मफल की चिंता किए बिना पूरी निष्ठा से अपना कर्म करना चाहिए। कर्मों के अनुसार मनुष्य को उसकेकर्मों का फल अवश्य ही मिलता है। अच्छे कर्मों का फल अच्छा तथा बुरे कर्मों का फल बुरा। आज की इस आधुनिक दुनियां में मनुष्य अत्यंत स्वार्थी और धैर्यहीन हो गया है, वह कोई भी कार्य करने से पहले उसके परिणाम के बारे में सोचता है और अपेक्षानुरूप परिणाम न मिलने पर परेषान हो जाता है। दुनियां में आत्महत्या का एक मूल कारण यही है। गीता का निष्काम कर्म मानवजाति को कर्म फल से प्राप्त चिंताओं और व्यथाओं से मुक्त करता है। सोचिए, अगर मनुष्य निष्काम कर्म के मार्ग का अनुसरण कर ले तो संपूर्ण जगत में दुःख संताप होगा ही नहीं और संपूर्ण मानव जाति सर्वदा आनंदित और चिंता-परेशानियों से मुक्त रहेगी।
गीता में कर्मों की विषद् व्याख्या की गई है। कर्म, विकर्म और अकर्म का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। अर्थात् कौन-सा कर्म करने योग्य है और कौन-सा कर्म कने योग्य नहीं है, इसे सरलता के साथ समझाया गया है। मनुष्य के सद्गुणों और दुर्गुणों, दैवीय और आसुरी स्वभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया। इसके साथ ही सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों के बारे में विषद् व्याख्या श्रीमद्भगवद्गीता में की गई है। इन सब के अनुसरण से मनुष्य अपने जीवन को सर्वश्रेष्ठ बनाने का प्रयोजन पूर्ण कर सकता है।
गीता कहती है कि जब कोई मनुष्य समस्त भौतिक इच्छाओं का त्याग करके न तो इन्द्रिय तृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकाम कर्मों में प्रवृत्त होता है, तो वह मनुष्य संन्यासी कहलाता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने मन को नीचे न गिरने दे, क्योंकि जिसने मन को जीत लिया है, उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है, किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाता है उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह मन को विचलित न होने दे और शरीर, मन तथा कर्म से निरन्तर संयम का अभ्यास करे तभी उसे मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी।
वैसे तो श्रीमद्भगवद्गीता में मानव जीवन से संबंधित सभी मूल्यों और सिद्धांतों की विषद् व्याख्या की गई है, किन्तु गीता का कर्मयोग, जिसे 'निष्काम कर्म का सिद्धांत' कहते हैं, मानव जाति के लिए सबसे अधिक प्रासंगिक माना जा सकता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने बार-बार अर्जुन को यही समझाया है कि जीवन में परिस्थितियाँ कितनी भी विषम क्यों न हों, मनुष्य को परिणाम की चिंता किए बिना अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। क्योंकि किसी भी स्थिति में मनुष्य को कर्म तो करना ही है। बिना कर्म किए मनुष्य एक क्षण भी नहीं रह सकता। यही 'निष्काम कर्मयोग' है।
भारत की सनातन परम्परा में मोक्ष प्राप्ति के लिए दो मार्गों को निर्धारित किया गया है। प्रवृत्ति मार्ग और निवृत्ति मार्ग। प्रवृत्ति मार्ग सकाम है। इसके अनुसार लौकिक तथा पारलौकिक जगत में सुख की प्राप्ति के लिए कर्म करना आवश्यक है। इसके विपरीत निवृत्ति मार्ग कर्म के त्याग और संन्यास का मार्ग है। इसके अनुसार मोक्ष की प्राप्ति के लिए संसार के कर्मों से छुटकारा आवश्यक है।
गीता में दोनों मार्गों में समन्वय स्थापित किया गया है। गीता कहती है कि कर्म आवश्यक है। कर्म बिना न तो मनुष्य का अस्तित्व रहेगा और न समाज का। इसलिए मनुष्य को कर्म अवश्य करना चाहिए, किन्तु फल की आशा नहीं करनी चाहिए। गीता कहती है कि जब मनुष्य अपने लिए नियत कर्मों को फल की आशा के बिना करता है, तो वह मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।
गीता की एक बात जो सब जानते हैं, किन्तु उसे उस दृष्टि से समझने का प्रयास नहीं करते जिस उद्देश्यसे वह कही गई है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि इस चराचर के कण-कण में वह स्वयं (ईश्वर) विद्यमान हैं, प्रत्येक जीव के अंदर वह विद्यमान हैं। सामान्य शब्दों में कहें तो ईश्वर हम सब के भीतर है। अर्थात् वास्तव में हम कर्ता नहीं हैं। हम एकमाध्यम मात्र हैं। कर्ता तो वह दिव्य शक्ति है, जो हमारे भीतर विद्यमान है, जिसे हम ईश्वर की संज्ञा देते हैं। अर्थात् हम जो कुछ भी करते हैं, वह वास्तव में हमारे भीतर बैठा हुआ ईश्वर हमसे करवा रहा है। जीवन में जो कुछ भी हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। सुख-दुख, अच्छा-बुरा, सफलता-असफलता सब कुछ हमारे भीतर बैठे हुए ईश्वर की इच्छा से निर्धारित होता है। कहने का मतलब यह है कि जो कुछ भी हमारे जीवन में और इस संसार में घटित हो रहा है, वह ईश्वर की इच्छा से घटित हो रहा है, हम सब माध्यम मात्र हैं। कर्ता तो ईश्वर है। इसलिए बिना किसी आसक्ति के हमें अपने लिए नियत सभी कर्मों को पूर्ण मनोयोग से करते रहना चाहिए, शेष सब ईश्वर पर छोड़ देना चाहिए। ऐसा करने से जीवन में कोई दुख, संताप और परेशानी नहीं होगी।
वर्तमान समय में ऐसा लगता है कि मानव जाति मानसिक रूप से बहुत कमजोर हो गई है। आज की पीढ़ी में छोटी-छोटी बातों पर आत्महत्या करने, झगड़ा करने, अत्यधिक तनाव और अवसाद जैसी स्थितियाँ आम बात हो गई हैं। इन सभी समस्याओं के निदान के लिए ही कदाचित गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से बार-बार कहा है कि सभी प्राणियों के भीतर मैं ही हूँ और मैं ही सब कुछ करने वाला कर्ता हूँ, यहाँ एक बात और विशेष रूप से समझना आवश्यक है। वह यह कि हम सब के भीतर ईश्वर विद्यमान हैं, अर्थात् हम कह सकते हैं कि इस ब्रह्माण्ड की 'सुपर अल्टीमेट पावर' या परम शक्ति हम सब के भीतर है। जब इतनी बड़ी शक्ति हम सब के भीतर मौजूद है, तो इस जगत में कुछ भी किया जाना असंभव नहीं है। आवश्यकता है उस पर शक्ति, उस अपरिमित ऊर्जा को जागृत करने की। वह जागृत होती है, आत्म विश्वास से और सकारात्मक चिंतन से। कहने का आषय है कि स्वयं पर विश्वास रखने और सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह से हम जीवन में वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जो हम सोचते हैं। क्योंकि हमारे भीतर ईश्वर रूपी परम शक्ति विद्यमान है और जब हम आत्म विश्वास के साथलक्ष्य प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हैं, तो वह परम शक्ति हमें अपने लक्ष्य तक पहुंचाने का मार्ग स्वतः ही प्रशस्त करती है।
वास्तव में गीता एक सार्वभौम धर्म ग्रंथ है, इसमें मानव के जीवन में आने वाली प्रत्येक समस्या का सर्वश्रेष्ठ समाधान विद्यमान है। केवल श्रीमद्भगवद्गीता को सही दृष्टिकोण से पढ़ने और समझने की आवश्यकता है।
Leave Comments